अमेरिका में रहकर उसके तरकश से ही एक तीर निकाल लाये रामपुरा के राहुल पुरवार
कैंसर इलाज के लिए कार-टी सेल विकसित कर खोज निकाला देसी इलाज
अमेरिका में इस इलाज के लिए खर्च होते 5 करोड़ , देश में 15 लाख में संभव
इस विधि से हुआ इलाज कैंसर को दबाता नहीं बल्कि उसे जड़ से करता है खत्म
डॉ. राकेश द्विवेदी
उरई। रामपुरा के जिन बीहड़ों में कभी ‘बंदूकों की खेती’ होती थी, वहाँ की जमीन पर अब ‘तरक्की के फूल’ फूलने लगे हैं। अब नई पीढ़ी मान सिंह – फूलन को नहीं प्रोफेसर राहुल पुरवार की कहानी पढ़ेगी और उसे याद रखेगी। राहुल ने कैंसर के शर्तिया इलाज के लिए एक ऐसा शोध पूरा कर लिया जिसने अमेरिका तक को आश्चर्य में डाल दिया। चिकित्सीय परीक्षण के लिए अब मुम्बई का टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल पूरी तरह तैयार है।
शाबाश प्रोफेसर राहुल ! आपने बीहड़ी धरती और समूचे देश को गर्व के साथ मुस्कुराने का अवसर जो दे दिया ! डकैतों के लिए कुख्यात और बदनाम रहे पचनद इलाके को पुरवार के शोध ने तरक्की का नया पौधा रोपित कर दिया है। विश्व इस स्तर पर महत्वपूर्ण बनने जा रही यह कामयाबी चंबल इतिहास के उन काले पन्नों को अब जरूर पलट देगी!
1994 तक रामपुरा की मिट्टी में ही वह खेले- कूदे और बड़े हुए। उन्हें डकैतों का हर जुर्म भी याद है। राहुल के स्वाद में कार्तिक पूर्णिमा पर कंजौसा में लगने वाले पचनदा मेले की मोटी जलेबियों की मिठास अभी शेष है। उनकी इंटर तक की पढ़ाई कस्बे से ही पूरी हुई । वह यहाँ के समर सिंह इंटर कॉलिज के विद्यार्थी रहे। फिर लखनऊ गए इसके बाद दिल्ली के एम्स में जाकर कुछ सीखा। मेधा परखकर पिता ने जर्मनी से शोध कार्य पूरा करने की अनुमति दे दी। चार वर्ष राहुल जर्मनी रहे और मन लगाकर अपना कार्य पूरा किया। अब उनके अमेरिका जाने की बारी थी। हार्वर्ड मेडिकल स्कूल जो कि बोस्टन शहर स्थित यूनिवर्सिटी का अंग है ,वहाँ कैंसर रोग की तमाम लक्षणों और इसके उपचार पर शोध कार्य किया। शोध पूरा करने में उनको 6 वर्ष लग गए। अमेरिका में उनका भविष्य सुनहरा था पर माता- पिता की सेवा के लिए वह स्वदेश लौट आये। प्रतिभाशाली को दिक्कत कहाँ ? आईआई टी बॉम्बे ने हाथों-हाथ लेकर असिस्टेंट प्रोफेसर की नौकरी दे दी। अमेरिका से जो अनुभव लेकर आये उसे जमीन पर उतारने की कोशिश शुरू हो गई। करीब छह वर्षों से एक ही कोशिश रही कि कैंसर का देसी इलाज अपनी धरती पर खोजा जाए जो अभी तक अमेरिका सहित कुछ अन्य विकसित देशों में ही उपलब्ध है। इस विधि के इलाज में अमेरिका में 5 करोड़ रुपये अकेले इलाज में खर्च हो जाते हैं। प्रोफेसर राहुल पुरवार बताते हैं कि अभी तक हमारे यहाँ कीमोथेरेपी से कैंसर का जो इलाज होता है , वह थोड़ी उम्र तो बढ़ाता पर कैंसर को जड़ से खत्म नहीं करता। जबकि अमेरिका में 5 करोड़ खर्च कर होने वाले इलाज से कैंसर जड़ से खत्म हो जाता है। देश में इतना महंगा इलाज हर कोई नहीं करा सकता। इसीलिए मन में अभिलाषा थी कि उसी जैसा देसी इलाज खोजकर लोगों की जान बचाऊं। ईश्वर ने मदद की और सफल हुआ । अब चिकित्सीय परीक्षण टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल में शुरू होने वाला है। जो शत प्रतिशत सफल होगा । इसकी मुझे पूरी उम्मीद है!
टाटा हॉस्पिटल के डा. गौरव नरूला और आईआईटी बॉम्बे के प्रोफेसर राहुल पुरवार की जोड़ी नया इतिहास रचने वाली है। पुरवार ने ड्रग डेवलपमेंट और मैन्यूफैक्चरिंग की जिम्मेदारी निभाई तो डा. नरूला पेसेंट पर इसके परीक्षण की तैयारी का तानाबाना बुनने में जुटे हुए हैं। इस विधि से इलाज होने पर देश में 15 लाख ही खर्च होंगे और लाइफ सुरक्षित ! जब यह इलाज खोजा जा रहा था , तब आईआईटी बॉम्बे को ही विश्वास नहीं हो रहा था पर अब सबको कामयाबी पर यकीन है।
गौरतलब है कि अभी तक कैंसर रोगियों का इलाज सर्जरी, कीमोथेरेपी या विकिरण चिकित्सा के द्वारा होता है। इन उपचार विधियों में मरीज को बहुत तकलीफ सहनी पड़ती है। लेकिन इलाज का जो नया तरीका प्रोफेसर राहुल की ओर से खोजा गया है, इसमें इलाज के दौरान कोई कष्ट नहीं होगा। प्रोफेसर पुरवार और उनकी टीम ने कैंसर कोशिकाओं पर हमला करने प्रतिरक्षा कोशिकाओं में सुधार किया है। इसके लिए उन्होंने प्रतिरक्षा कोशिकाओं की ताकत बढ़ाने को ‘जीन थैरेपी’ और ‘सेल थैरेपी’ को संयोजित किया है। कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करने को डिजाइन किए गए विशेष कोशिकाओं के रूप में ‘टी सेल’ को नामित किया गया है। ये कोशिकाएं कैंसर और ट्यूमर के विकास को रोकने में मदद करती हैं। नव गठित कोशिकाओं को पुरवार ने ‘ सीएआर टी -सेल ‘नाम दिया है। ये कोशिकाएं शरीर में कैंसर कोशिकाओं का पता लगाने और उन्हें बाहर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
प्रोफेसर पुरवार कहते हैं कि शिक्षकों को अपने दायित्वों पर ध्यान देना चाहिए। उन्हें अन्य स्थानों से मन हटाकर सिर्फ विद्यार्थियों को पढ़ाने में रुचि रखनी होगी। प्रदेश सरकार को भी उत्साहित करने का माहौल तैयार करना चाहिए , जिसका अभी अभाव दिखता है।
संजय श्रीवास्तव-प्रधानसम्पादक एवम स्वत्वाधिकारी, अनिल शर्मा- निदेशक, डॉ. राकेश द्विवेदी- सम्पादक, शिवम श्रीवास्तव- जी.एम.